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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की गुप्त शक्तियाँ

गायत्री की गुप्त शक्तियाँ

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15485
आईएसबीएन :00000

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गायत्री मंत्र की गुप्त शक्तियों का तार्किक विश्लेेषण

गायत्री मंत्र

 

ॐ भूर्भुवः स्वः 

तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य 

धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

 

गायत्री सनातन एवं अनादि मंत्र है। पुराणों में कहा गया है कि-"सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मंत्र प्राप्त हुआ था, इसी गायत्री की साधना करके उन्हें सृष्टि निर्माण की शक्ति प्राप्त हुई। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप ही ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया। गायत्री को वेदमाता कहते हैं। चारों वेद, गायत्री की व्याख्या मात्र हैं।" गायत्री को जानने वाला वेदों को जानने का लाभ प्राप्त करता है।

गायत्री के २४ अक्षर २४ अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद् आदि में जो शिक्षाएँ मनुष्य जाति को दी गई हैं, उन सबका सार इन २४ अक्षरों में मौजूद है। इन्हें अपनाकर मनुष्य प्राणी व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुख-शान्ति को पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकता है।

गायत्री, गीता, गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधारशिलायें हैं, इन सबमें गायत्री का स्थान सर्वप्रथम है। जिसने गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लिया, उसके लिए और कुछ जानना शेष नहीं रहता।

समस्त धर्म ग्रन्थों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई। समस्त ऋषि-मुनि मुक्त कण्ठ से गायत्री का गुण-गान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा बताने वाला साहित्य भरा पड़ा है। उसका संग्रह किया जाय, तो एक बड़ा ग्रन्थ ही बन सकता है। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है-"गायत्री छन्दसामहम्" अर्थात्- गायत्री मंत्र मैं स्वयं ही हूँ।

गायत्री उपासना के साथ-साथ अन्य कोई उपासना करते रहने में कोई हानि नहीं। सच तो यह है कि अन्य किसी भी मन्त्र का जाप करने में या देवता की उपासना में तभी सफलता मिलती है, जब पहले गायत्री द्वारा उस मंत्र या देवता को जाग्रत् कर लिया जाए। कहा भी है-

यस्य कस्यापि मन्त्रस्य पुरश्चरणामारभेत्।
व्याहृतित्रयसंयुक्तां गायत्री चायुतं जपेत्।।
नृसिंहार्कवराहाणां तान्त्रिकं वैदिकं तथा।
बिना जप्त्वातु गायत्रीं तत्सर्वं निष्फलं भवेत्॥

-दे.भा. ११.२१.४-५

चाहे किसी मंत्र का साधन किया जाए। उस मंत्र को व्याहृति समेत गायत्री सहित जपना चाहिए। चाहे नृसिंह, सूर्य, वराह आदि किसी की उपासना हो या वैदिक एवं तान्त्रिक प्रयोग किया जाए, बिना गायत्री को आगे लिए वे सब निष्फल होते हैं। इसलिए गायत्री उपासना प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है।

गायत्री सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम मन्त्र है। जो कार्य संसार में किसी अन्य मन्त्र से हो सकता है, गायत्री से भी अवश्य हो सकता है। इस साधना में कोई भूल रहने पर भी किसी का अनिष्ट नहीं होता, इससे सरल, स्वल्प, श्रम साध्य और शीघ्र फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है।

समस्त धर्म ग्रन्थों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई है। अथर्ववेद में गायत्री को आयु, विद्या, सन्तान, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है। विश्वामित्र ऋषि का कथन है-"गायत्री के समान चारों वेरों में कोई मंत्र नहीं है। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप गायत्री की एक कला के समान भी नहीं है।"

गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों में अनेक ज्ञान-विज्ञान छिपे हुए हैं। अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्र, सोना आदि बहुमूल्य धातुओं का बनाना, अमूल्य औषधियाँ रसायनें, दिव्य यन्त्र अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ शाप-वरदान के प्रयोग, नाना प्रयोजनों के लिए नाना प्रकार के उपचार, परोक्ष विद्या, अन्तर्दृष्टि, प्राण विद्या, वेधक प्रक्रिया, शूल शाल्य, वाममार्गी तंत्र विद्या, कुण्डलिनी चक्र, दश महाविद्या, महामातृका, जीवन निर्मीक्ष, रूपान्तरण, अक्षात सेवन, अदृश्य दर्शन, शब्द परव्यूह, सूक्ष्म संभाषण आदि अनेक लुप्त प्राय महान् विद्याओं के रहस्य, बीज और संकेत गायत्री में मौजूद हैं। इन विद्याओं के कारण एक समय हम जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक और स्वर्ग सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे, आज इन विद्याओं को भूलकर हम सब प्रकार दीन-हीन बने हुए हैं। गायत्री में सन्निहित उन विद्याओं का यदि फिर प्रकटीकरण हो जाए, तो हम अपना प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकते हैं।

गायत्री साधना द्वारा आत्मा पर जमे हुए मल विक्षेप हट जाते हैं, तो आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है और अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ परिलक्षित होने लगती हैं। दर्पण माँज देने पर उसका मैल छूट जाता है, उसी प्रकार गायत्री साधना से आत्मा निर्मल एवं प्रकाशवान् होकर ईश्वरीय शक्तियों, गुणों, सामथ्र्यों एवं सिद्धियों से परिपूर्ण बन जाती है।

आत्मा के कल्याण की अनेक साधनायें हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है और उनके परिणाम भी अलग-अलग हैं। 'स्वाध्याय' से सन्मार्ग की जानकारी होती है। 'सत्संग' से स्वभाव और संस्कार बनते हैं। 'कथा सुनने से सद्भावनाएँ जाग्रत् होती हैं। 'तीर्थयात्रा' से भावांकुर पुष्ट होते हैं। 'कीर्तन' से तन्मयता का अभ्यास होता है। दान-पुण्य से सुख-सौभाग्यों की वृद्धि होती है। 'पूजा-अर्चा' से आस्तिकता बढ़ती है। इस प्रकार यह सभी साधन ऋषियों ने बहुत सोच-समझकर प्रचलित किये हैं। पर 'तप' का महत्त्व इन सबसे अधिक है। तप की अग्नि में पड़कर ही आत्मा के मल विक्षेप और पाप-ताप जलते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा में वह प्रचण्ड बल पैदा होता है, जिसके द्वारा सांसारिक तथा आत्मिक जीवन की समस्याएँ हल होती हैं। तप की सामथ्र्य से ही नाना प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसलिए तप साधन को सबसे शक्तिशाली माना गया है। तप के बिना आत्मा में अन्य किसी भी साधन से- तेज, प्रकाश, बल एवं पराक्रम उत्पन्न नहीं होता।

गायत्री उपासना प्रत्यक्ष तपश्चर्या है, इससे तुरन्त आत्मबल बढ़ता है। गायत्री साधना एक बहुमूल्य दिव्य सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को इकट्ठी करके साधक उसके बदले में सांसारिक सुख एवं आत्मिक आनन्द भली प्रकार प्राप्त कर सकता है।

गायत्री मंत्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है। इस महामंत्र की उपासना आरम्भ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आन्तरिक क्षेत्र में एक नई हलचल एवं रद्दोबदल आरम्भ हो गई है। सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि होने से दुर्गुण, कुविचार, दु:स्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरम्भ हो जाते हैं और संयम, नम्रता, पवित्रता, उत्साह, स्फूर्ति, श्रमशीलता, मधुरता, आदि सद्गुणों की मात्रा दिन-दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप लोग उसके स्वभाव एवं आचरण से सन्तुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान के भाव रखते हैं और समय-समय पर उसकी अनेक प्रकार से सहायता करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं, कि जिस हृदय में इनका निवास होगा, वहाँ आत्म-सन्तोष की परम शान्तिदायक शीतल निझरिणी सदा बहती है। ऐसे लोग सदा स्वर्गीय सुखआस्वादन करते हैं।

गायत्री साधना के साधक के मन:क्षेत्र में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक, दूरदर्शिता, तत्त्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञान जन्य दु:खों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश अनिवार्य कर्मफल के कारण कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं, हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों से जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यु तुल्य कष्ट पाते हैं। वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, सन्तोष, संयम और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा असाधारण परिस्थितियों में भी वह अपने आनन्द का मार्ग ढूँढ़ निकालता है और मस्ती, प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है।

प्राचीन काल में ऋषियों ने बड़ी-बड़ी तपस्यायें और योग साधनायें करके अणिमा, महिमा आदि चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनके शाप और वरदान सफल होते थे तथा वे कितने ही अद्भुत एवं चमत्कारी समयों से भरे पूरे थे, इनका वर्णन इतिहास, पुराणों में भरा पड़ है। वह तपस्यायें और योग साधनायें गायत्री के आधार पर ही होती थीं। गायत्री महाविद्या से ही ८४ प्रकार की महान् योगसाधनाओं का उद्भव हुआ है।

गायत्री के २४ अक्षरों का गुंथन ऐसा विचित्र एवं रहस्यमय है कि उनके उच्चारण मात्र से जिह्वा, कण्ठ, तालु एवं मूर्धा में अवस्थित नाड़ी तंतुओं का एक अद्भुत क्रम में संचालन होता है। टाइप राइटर की कुज्जियों पर ऊँगली रखते ही जैसे कागज पर अक्षर की चोट पड़ती है, वैसे ही मुख में मंत्र का उच्चारण होने से शरीर में विविध स्थानों पर छिपे हुए शक्ति चक्रों पर उसकी चोट पड़ती है और उनका सूक्ष्म जागरण होता है। इस संचालन से शरीर के विविध स्थानों में छिपे हुए षट्चक्र भ्रमर, कमल, ग्रन्थि संस्थान एवं शक्ति चक्र झंकृत होने लगते हैं। मुख की नाड़ियों द्वारा गायत्री के शब्दों के उच्चारण का आघात उन चक्रों तक पहुँचता है। जैसे सितार के तारों पर क्रमबद्ध ऊँगलियाँ फिराने से एक स्वर लहरी एवं ध्वनि तरंग उत्पन्न होती है, वैसी ही गायत्री के चौबीस अक्षरों का उच्चारण उन चौबीस चक्रों में झंकारमय गुंजार उत्पन्न करता है, जिससे वे स्वयमेव जाग्रत् होकर साधक को योग शक्तियों से सम्पन्न बनाते हैं। इस प्रकार गायत्री के जप से अनायास ही एक महत्त्वपूर्ण योग साधना होने लगती है और उन गुप्त शक्ति केन्द्रों के जागरण से आश्चर्यजनक लाभ मिलने लगता है।

गायत्री भगवान् का नारी रूप है। भगवान् की माता के रूप में उपासना करने से दर्पण के प्रतिबिम्ब एवं कुएँ की आवाज की तरह वे भी हमारे लिए उसी प्रकार प्रत्युतर देते हैं, संसार में सबसे अधिक स्नेहमूर्ति माता होती है। भगवान् की माता के रूप में उपासना करने से प्रत्युतर में उनका अपार वात्सल्य प्राप्त होता है। मातृ पूजा से नारी जाति के प्रति पवित्रता, सदाचार एवं आदर के भाव बढ़ते हैं, जिनकी कि मानव जाति को आज अत्यधिक आवश्यकता है।

गायत्री को भूलोक की कामधेनु कहा गया है, क्योंकि यह आत्मा की समस्त क्षुधा, पिपासायें शान्त करती हैं। 'गायत्री' को 'सुधा' कहा गया है- क्योंकि जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाकर सच्चा अमृत प्रदान करने की शकि से वह पिरपूर्ण है। गायत्री को परसमण कहा गया है; क्योंकि उसके स्पर्श से लोहे के समान कलुषित अन्त:करणों का शुद्ध स्वर्ण जैसा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो जाता है। गायत्री को कल्पवृक्ष कहा गया है-क्योंकि इसकी छाया में बैठकर मनुष्य उन सब कामनाओं को पूर्ण कर सकता है जो उसके लिए उचित एवं आवश्यक है।

श्रद्धापूर्वक गायत्री माता का आँचल पकड़ने का परिणाम सदा कल्याणकारक ही होता है। गायत्री को ब्रह्मास्त्र कहा गया है; क्योंकि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। इसका प्रयोग कभी भी व्यर्थ नहीं होता है।

गायत्री उपासना से मनुष्य की अनेक कठिनाइयाँ हल होती हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं कि जो लोग आरम्भ में दरिद्रता का अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते थे, अपने मामूली गुजारे की भी व्यवस्था जिनके पास न थी, कर्ज के बोझ से दबे हुए थे, व्यापार में घाटा जा रहा था, उन्होंने गायत्री उपासना की और अर्थ संकट को पार करके ऐसी स्थिति पर पहुँच गये कि जिनको अनेकों को देखकर ईष्र्या होने लगी। कम पढ़े और छोटी नौकरियों पर काम करने वालों को ऊँचे पद पर पहुँचने के उदाहरण मौजूद हैं। जिनकी बुद्धि बड़ी ही भौंड़ी और मन्द थी वे चतुर, तीक्ष्ण और विद्वान् बने हैं। जिनकी परीक्षा में पास होने की कोई आशा नहीं करता था, ऐसे विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से पास हुए हैं। झगड़ालू, चिड़चिड़े, क्रोधी, व्यसनी बुरी आदतों में फँसे हुए आलसी एवं मूढ़ मति लोगों के स्वभाव में ऐसा परिवर्तन हुआ है कि लोग दाँतों तले ऊँगली दबाये रह गये।

गायत्री साधना के चमत्कारी लाभ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रकट होते रहते हैं। जिनके दाम्पत्य-जीवन बड़े कर्कश थे, पति-पत्नी में कुत्ता, बिल्ली का सा बैर रहता था, वहाँ प्रेम की निझरिणी बहती देखी गई। भा-ईभाई जो एक-दूसरे के जानी दुश्मन बने हुए थे, उनमें भरत मिलाप हुआ। जो कुटुम्ब, परिवार, क्लेश और कलह की अग्नि में झुलस रहे थे, वहाँ शान्ति की वर्षा हुई। फौजदारी, मुकदमेबाजी, कत्ल, चोरी, डकैती की आशंका से जहाँ हर घड़ी भय रहता था, वहाँ निर्भयता का एक छत्रराज हुआ। शत्रुओं के आक्रमण में जो लोग घिरे हुए थे, वे इन आपत्तियों से बाल-बाल बच गये।

बीमारी से तो कितने ही साधकों का पिण्ड छूटा है। कई तो तपेदिक की मृत्यु शय्या पर पड़े-पड़े यमराज से लड़े हैं और उनकी दाढ़ों में से वापस लौटे हैं। भूतोन्माद, दु:स्वप्न, मूछों, हृदय की निर्बलता, गर्भाशय का विषैला होना आदि रोगों से कितनों ने ही मुक्ति पाई है। कोढ़ी शुद्ध हुए हैं। असंयम जीवन क्रम और कुविचारों से उत्पन्न होने वाले स्वप्नदोष, प्रमेह आदि रोगों में मनःशुद्धि के साथ-साथ तुरन्त कम होना आरम्भ हो जाता है। दुर्बल, जीर्ण, रोगों से ग्रस्त, व्यक्तियों को वेदमाता की गोद में पहुँचकर बड़ी शान्ति मिलती देखी गई है। सन्निपात, शीतज्वर, हैजा, प्लेग, मोतीझरा, निमोनिया आदि कठिन रोगों में गायत्री ने चक्रसुदर्शन की तरह रक्षा की है।

चिन्ताओं के दबाव से जो मस्तिष्क फटते रहते थे, उन्हें निश्चिन्तता और सन्तोष की साँस लेते हुए देखा गया है। मृत्यु, शोक, सम्पत्ति नाश, ऋणग्रस्तता, बात बिगड़ जाने का भय, कन्या के विवाह का खर्च, प्रियजनों का विछोह, जीविका का आश्रय टूट जाना, अपमान, असाध्य रोग, दरिद्रता, शत्रुओं का प्रकोप, बुरे भविष्य की आशंका आदि कारणों से जिन्हें हर घड़ी चिन्ता घेरे रहती थी, उन्हें माता की कृपा से निश्चिन्तता प्राप्त हुई है या उन्हें कोई आकस्मिक सहायता मिली है या भीतरी प्रेरणा से उद्धार का कोई उपाय सूझ पड़ा है। अन्त:करण में ऐसा विवेक और आत्मबल प्रकट हुआ है, जिससे उस अवश्यम्भावी अटल प्रारब्ध को हँसते-हँसते वीरतापूर्वक सहन कर लिया है।

पुरुषों की ही भाँति स्त्रियाँ भी प्रसन्नतापूर्वक गायत्री की उपासना कर सकती हैं। विधवायें आत्म-संयम, इन्द्रिय-निरोध, मनोनिग्रह एवं सात्त्विकता की वृद्धि करने में गायत्री की सहायता से सफल होती हैं। वे घर में रहकर इस तपस्या द्वारा आत्म-कल्याण, प्रभु-प्राप्ति एवं जीवन मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं। कुमारी कन्याओं की गायत्री साधना उनको अच्छे घर, वर तथा अनन्त सौभाग्य प्राप्त करने में सहायक होती है। सधवाएँ गायत्री उपासना द्वारा दाम्पत्य जीवन में प्रेम, घर में सुख-शान्ति एवं समृद्धि, बालकों का कुशल क्षेम प्राप्त करती हैं। गर्भवती स्त्रियाँ वेदमाता की उपासना करके स्वस्थ, तेजस्वी, बुद्धिमानी, दीर्घजीवी एवं भाग्यवान बालक प्राप्त करती है।

सबसे उत्तम यह है कि निष्काम होकर अटूट श्रद्धा और भक्ति भाव से गायत्री उपासना की जाए, कोई कामना पूर्ति की शर्त न लगाई जाए। क्योंकि मनुष्य अपने वास्तविक लाभ या हानि और आवश्यकता को स्वयं उतना नहीं समझता जितना घट-घट वासिनी सर्वशक्तिमान् माता समझती है। वह हमारी वास्तविक आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करती है। प्रारब्धवश कोई अटल दुर्भाग्य न भी टल सके, तो भी साधना निष्फल नहीं जाती। वह किसी न किसी अन्य मार्ग से साधक को उसके श्रम की अपेक्षा अनेक गुना लाभ अवश्य पहुँचा देती है। सबसे बड़ा लाभ आत्म-कल्याण है। जो यदि संसार के समस्त दु:खों को अपने ऊपर लेने से प्राप्त होता हो, तो भी प्राप्त करने ही योग्य है।

गृही-विरक्त, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी अपनी स्थिति और सुविधा के अनुसार गायत्री माता का आश्रय लेकर अपने भीतर और बाहर फैले हुए अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकते हैं। अविश्वासी व्यक्ति परीक्षा की दृष्टि से भी कुछ समय गायत्री उपासना करके देखें, तो उनका अविश्वास विश्वास में परिणत होकर रहता है।

गायत्री जप एक आवश्यक नित्य कर्तव्य है। इस धर्म-कर्तव्य की उपेक्षा करने वालों को शास्त्रकारों ने शूद्र कहा है। मनुष्य का हाड़-मांस का शरीर माता के गर्भ से उत्पन्न होता है, किन्तु आध्यात्मिक जीवन गायत्री माता के द्वारा ही मिलता है। यह दूसरा जन्म होने पर ही व्यक्ति द्विज कहलाता है। जहाँ गायत्री साधना नियमित होती है, वहाँ कल्याण की निरन्तर वर्षा होती रहती है।

गायत्री साधना के नियम बहुत सरल हैं। स्नानादि से शुद्ध होकर प्रात:काल पूर्व की ओर, सायंकाल पश्चिम की ओर मुँह करके, आसन बिछाकर जप के लिए बैठना चाहिए। पास में जल का पात्र तथा धूपबती जलाकर रख लेनी चाहिए। जल और अग्नि को साक्षी रूप से समीप रखकर जप करना उत्तम है। आरम्भ में गायत्री के चित्र का पूजन अभिवादन या ध्यान करना चाहिए, पीछे जप इस प्रकार आरम्भ करना चाहिए। कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होंठ हिलते रहें, पर पास बैठा हुआ भी दूसरा मनुष्य स्पष्ट रूप से न सुन समझ सके। तर्जनी उँगली से माला का स्पर्श नहीं करना चाहिए। एक माला पूरी होने के बाद उसे उलट देना चाहिए। सुमेरु (बीच का बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। कम से कम १०८ मंत्र नित्य जपने चाहिए। जप पूरा होने पर पास में रखे हुए जल को सूर्य के सामने अध्र्य चढ़ा देना चाहिए।

रविवार गायत्री का दिन है, उस दिन उपवास या हवन हो सके तो उत्तम है। आश्विन और चैत्र की नवरात्रि में २४ हजार जप का लघु पुरश्चरण किया जाए तो उसका फल आशाजनक होता है। पूरा अनुष्ठान सवालक्ष जप का होता है, जिसे पूरा होने में चालीस दिन लगते हैं। इसके लिए हरिद्वार में भी एक संस्कारित स्थान की व्यवस्था की गई है।

हरिद्वार से ऋषिकेश जाने वाली सड़क पर हरिद्वार सो छ: किलोमीटर दूर शान्तिकुञ्ज नामक एक परम पुनीत तीर्थ स्थापित है। अनेक गायत्री साधक वहाँ निवास करते हैं, जिन्हें अवसर मिले इस पुण्य तीर्थ के दर्शन करने का प्रयत्न करना चाहिए। विशेष साधना करने के लिए भी यह स्थान बड़ा शान्तिदायक है।

गायत्री महामंत्र द्वारा अनेक प्रकार की अनेक साधनाएँ होती हैं। अनेक बीज मंत्र ऐसे हैं; जिन्हें गायत्री के साथ लगाकर जप करने से विशेष परिणाम होते हैं। सर्दी प्रधान (कफ) रोगों के निवारण में 'ऐं' बीज मंत्र का, गर्मी प्रधान (पित्त) रोगों को दूर करने के लिए 'एँ' बीज मंत्र और अपच (वात) रोगों में 'हुँ' बीज का उपयोग किया जाता है। गायत्री से अभिमंत्रित जल पिलाने या मार्जन करने से बीमार को तुरन्त शान्ति मिलती है। भयंकर सर्प के काटने पर मृत्यु का भय सामने खड़ा हो या बिच्छू आदि विषैले जीव के काट लेने पर किसी को भारी पीड़ा हो, तो पीपल वृक्ष की समिधाओं से किये हुए गायत्री हवन की भस्म को 'हुँ' सम्पुट सहित गायत्री मंत्र के साथ काटे हुए स्थान पर लगाने से आश्चर्यजनक लाभ होता है। रक्त चन्दन की भस्म एवं पीली सरसों का ऐसे अवसरों पर प्रयोग किया जाता है। बुद्धि को सात्त्विक एवं तीव्र करने के लिए प्रात:काल सूर्य का दर्शन करते हुए तीन बार 'ॐ' का उच्चरण करते हुए गायत्री मंत्र जपते हैं और सूर्य संतापित हथेलियों को नेत्र, ग्रीवा, कान, मस्तक आदि शिरोभागों पर लगाते हैं। राजद्वार में सफलता पाने के लिए सप्त व्याहृतियों के साथ जप किया जाता है और जो स्वर चल रहा है उसी हाथ के अँगूठे के नाखून पर दृष्टि रखी जाती है दरिद्रता नाश के लिए 'श्रीं' बीज का सम्पुट और साधन में रजोगुण प्रधान पूजा सामग्री का प्रयोग होता है। शत्रुता का संहार करने के लिए 'क्लीं' बीज सहित रक्त चन्दन की माला पर जप और रक्तवर्ण माता का ध्यान करते हैं। भूत बाधा निवारण के लिए गायत्री यज्ञ की भस्म तथा हवन में तपाये हुए जल को पिलाना बड़ा उपयोगी है। परस्पर के विरोध को शान्त करके उसे मित्रता में परिणत करने के लिए पीपल के पत्ते पर जल का अभिषेक किया जाता है। सुसन्तति प्राप्त करने के लिए पति-पत्नी को 'यं' बीज तीन बार लगा कर चंदन की माला पर जप करना होता है। इसी प्रकार अनेक सकाम प्रयोजनों के लिए अनेक साधनाएँ हैं।

गायत्री द्वारा तान्त्रिक वाममार्गी साधनायें भी हो सकती हैं और जो चमत्कार अन्य मंत्रों से होते हैं, वे सब भी आसानी के साथ हो सकते हैं। पर इस महाविद्या का ऐसे तुच्छ प्रयोजनों में प्रयोग करना उचित नहीं। गायत्री साधक को थोड़े ही दिनों में अनेक छोटी-मोटी सिद्धियों की सफलतायें दृष्टिगोचर होने लगती हैं, पर उनको दूसरों पर प्रकट करना या तुच्छ कार्यों में प्रयोग करना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करने से आगे की उन्नति रुक जाती है। यदि मनुष्य निश्चित रीति से शान्त चित्त से गायत्री उपासना करता रहे, तो वह एक ही जन्म में भव-बन्धन से पार होकर जीवन लक्ष पूर्ण करता हुआ ब्रह्म निर्वाण प्राप्त कर सकता है।

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